जैन धर्म में अनंत चतुर्दशी के दिन व्रत रखा जाता है। इस दिन या तो निर्जल व्रत रखते हैं या फिर एक समय ही पानी पीने का नियम होता है।अनंत चतुर्दशी के दिन जैन धर्म के अनुयायी सफेद लाडू यानी कि सफेद लड्डू बनाते हैं और उन्हीं का भोग तीर्थंकरों को चढ़ाया जाता है।खास बात यह है कि जैन धर्म में अनंत चतुर्दशी का व्रत पाच दिन में पूर्ण होता है। पांच दिन के पांच अलग-अलग कर्म करने का विधान है।
अनन्त चतुर्दशी जैन व्रत की कथा(Story of Anant Chaturdashi Jain fast)
एक बार विपुलाचल पर्वत पर भगवान महावीर का समवशरण आया था। राजा श्रेणिक भगवान की वन्दना के लिए वहां पहुंचे। भगवान की प्रदक्षिणा देकर राजा श्रेणिक जैसे ही बैठे । तभी एक रूववान विद्याधर समवशरण में आया और उसने भगवान को नमस्कार करके जय जयकार किया। उसे सुनकर राजा श्रेणिक को बड़ा आश्चर्य हुआ। अपने आश्चर्य को प्रकट करते हुए श्रेणिक ने गौतम गणधर से प्रश्न किया- “स्वामिन् ? यह क्या कह रहा है और यह कौन है. मुझे यह बताइये”।
गौतम स्वामी बोले- “विजयनगर नगरी का मनोकुम्भ था और उसकी रानी का नाम श्रीसती था। इनके एक अरिंजय नामक पुत्र था जो बड़ा पुण्यवान् और गुणवान् था। इसने पूर्व जन्म में बड़ा तप किया था, जिसके पुण्य प्रभाव से यह इस जन्म में सुखो का भोग कर रहा था इसके पूर्व जन्म की कथा इस प्रकार है:
कौशल देश में सोम शर्मा नामक एक गुणवान ब्राह्मण रहता था। इसकी सोमिल्या नाम की स्त्री थी, इस ब्राह्मण ने पूर्व जन्म में पाप संचय किये थे इसलिए इसे नगर-२ मारा-मारा फिरना पड़ता था, किन्तु कहीं भी इसे सुख प्राप्त नहीं होता था एक बार एक स्थान पर *अनन्तनाथ भगवान* का समवशरण आया हुआ था। यह ब्राह्मण समवशरण में भगवान के दर्शनार्थ पहुंचा और दर्शन करके पूछने लगा- “हे भगवान ! मैने बड़े भारी पाप किए है, जिससे मुझे यह दुख उठाने पड़ रहे हैं। भगवान् ऐसा उपाय बताइये, जिससे इन दुःखों से मुझे छुटकारा मिले।’ द्विज की बात सुनकर गणधर ने उत्तर दिया- “विप्र तुम अनंत-चौदस व्रत करो” विप्र बोला-“यह व्रत कैसे किया जाता है और इसका क्या विधान है “। गणधर बोले-“भादव शुक्ला चतुर्दशी को स्नान करके भगवान का पूजन करना चाहिए और गुरु को भाव-वंदना करके इस तरह की प्रतिज्ञा करनी चाहिए। त्रिकाल-जिनेन्द्र पूजन करे । गीत-नृत्य पूर्वक भगवान का अभिषेक करे, रात्रि जागरण करे। इस प्रकार चौदह वर्ष तक लगातार यह व्रत करने के बाद उसका उत्साह पूर्वक उद्यापन में शक्ति पूर्वक शास्त्र दान करें। यदि उद्यापन की शक्ति न हो तो दूने व्रत करें।
विप्र ने इसी के अनुसार व्रत किये। इससे उसके सारे दुःखों का नाश हो गया और अपने अन्तिम समय में सन्यास मरण करके वह चौथे स्वग में महद्धिक देव हुआ। वहाँ से चलकर यह अरिन्जय हुआ। उसने ही आकर अभी भगवान को प्रणाम किया है।
एक दिन राजा अपने सिंहासन पर सुख से बैठा हुआ था। तभी उसने देखा कि एक बादल आया और थोड़ी देर में वह छिन्न-भिन्न हो गया। उसे देखकर राजा ने सोचा “अहो ! मनुष्य का जीवन भी इस बादल की तरह क्षणभंगुर और चंचल है, मेरे जीवन का भी क्या भरोसा, कब यह समाप्त हो जाए इसलिए शेष जीवन में तो आत्म कल्याण कर लेना चाहिए, यह सोचकर राजा ने राजपाट पुत्र को सौंपकर स्वयं मुनि दीक्षा ले ली और घोर तप कर कर्मों को नष्ट कर दिया और सिद्ध शिला पर जा विराजमान हुआ । इधर रानी ने भी व्रत धारण किया, जिसके प्रभाव से वह अच्युत स्वर्ग में देव बनी और वहाँ से चलकर राजा बनी। यथा समय उसने भी मुनि दीक्षा लेली और मुक्ति प्राप्त की।
इस प्रकार जो कोई इस व्रत को धारण करता है वह स्वर्ग और मुक्ति प्राप्त करता है।
विधिः-अनन्त व्रत भादो सुदी एकादशी से आरम्भ किया जाता है। प्रथम एकादशी को उपवास कर द्वादशी को एकाशन करें अर्थात मौन सहित स्वाद रहित, प्रासुक भोजन ग्रहण करे, सात प्रकार के गृहस्थों के अंतरोय का पालन करें। त्रयोदशी को जिनाभिषेक, पूजनपाठ के पश्चात छाछ या छाछ मे जौ, बाजरा के आटे से बनाई गई महेरी का आहार ले। चतुर्दशी के दिन निषेध करे तथा सोना, चांदी या रेशम सूत का अनन्त बनाये, जिसमे चैदह गांठ लगाए।
प्रथम गांठ पर ऋषभ नाथ से लेकर अनन्तनाथ तक चैदह तीर्थकरों के नामो का उचारण, दूसरी गांठ पर तपसिद्धि, विनय सिद्धि, संयम सिद्धि, चारित्र सिद्धि, श्रुताभ्यास, निश्चयात्मक भाव, ज्ञान, बल दर्शन, वीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अगुरू लघुत्व और अव्या बाधत्व इन चैदह गुणो का चिन्तन, तीसरी पर उन चैदह मुनियो का नामोचारण जो मति, श्रुतअवधिज्ञान के धारी हुए है, चैथी पर अर्हन्त भगवान के चैदह देवकत अतिशयो का चिन्तन, पांचवी पर जिन वाणी के चैदह पूर्वो का चिन्तन, छठवी पर चैदह गुण स्थानो का चिन्तन, सातवी पर चैदह मार्गणाओ का स्वरूप, आठवी पर चैदह जीव समासो का स्वरूप, नौवी पर गंगादि चैदह नदियो का उच्चारण, दसवी पर चैदह राजू प्रमाण ऊंचे लोग का स्वरूप, ग्यारहवी पर चक्रवर्ती के चैदह रत्नों1 का, बारहवे पर चैदहस्वरो का, तेरहवी पर चैदह तिथियो का एवं चैदहवी गांठ पर अभ्यान्तर चैदह प्रकार के परिग्रह से रहित मुनियों का चिन्तन करना चाहिए। इस प्रकार अनन्त का निर्माण करना चाहिए।
1. गृहपति, सेनापति, शिल्पी, पुरोहित, स्त्री, हाथी, घोडा, चक्र, असि (तलवार), छत्र, दण्ड, मणि, धर्मऔर कांकिणी, ये चक्रवर्ती के चैदह रत्न है।
पूजा करने की विधि यह है कि शुद्ध कोरा घड़ा लेकर उसका प्रक्षाल करना चाहिए। पश्चात उस घड़े पर चन्दन, केशरआदि सुगन्धित वस्तुओ का लेप कर तथा उसके भीतर सोना, चांदी या तांबे के सिक्के रखकर सफेद वस्त्र से ढक देना चाहिए। घड़े पर पुष्प् मालाये डाल कर उसके ऊपर थाली प्रक्षाल करके रख देनी चाहिए। थाली के अनन्तव्रत का माडना और यंत्र लिखना, पश्चात आदि-नाथ से लेकर अनन्तनाथ तक चैदह भगवानों की स्थापना यंत्र पर की जाती है। अष्ट द्रव्य से पूजा करने के उपरान्त
‘ऊँ ह्नीं अर्हत्रमः अनन्त के वलिने नमः’
इस मंत्र को 108 बार पढ़ कर पुष्प चढ़ाना चाहिए अथावा पुष्पो से जाप करना चाहिए। पश्चातं ‘ऊँ झीं क्ष्वीं हंस अमृत वाहिने नमः’ अनेन मंत्रेणसुरभिमुद्रों धृत्वों उत्तम गन्धोदक प्रोक्षणं कुर्यात अर्थात- ऊँ झीं क्ष्वी हंस अमृतवाहिनेनमः इस मंत्र को तीन बार पढ़कर सुरभि मुद्रा द्वारा सुगंधित जल से अनन्तका सिंचन करना चाहिए। अनंत चैदह भगवान् की पूजाकरनी चाहिए।
‘ऊँ हृी अनन्ततीर्थकराय हृांहृीहृूंहृौं हृः आ उ साय नमः सर्वशांति तुष्र्टि सौभाग्यमा युरारोग्यै श्वर्यमष्ट सिद्धि कुरू कुरू सर्वविघ्नविनाशनंकुरू-कुरू स्वाह’
इस मंत्र से प्रत्येक भगवान की पूजा के अनन्तर अध्र्य चढाना चाहिए। ऊँ हृींहृं स अनन्त केवली भगवान् धर्म श्री बलायु रारोग्यै श्वर्याभिवृद्धिं कुरू कुरू स्वाहा इस मंत्र को पढ़कर अनन्त पर चढ़ाए हुए पुष्पों की आशिका एवं
‘ ऊँ हीं अर्हत्रम सर्वकर्म बंधन विमुक्ताय नमः स्वहा’
इस मंत्र कोपढ़कर शांति जल की आशिका लेनी चाहिए। इस व्रत में ‘ ऊँ हृीं अर्हंहं स अनन्त केवलि ने नमः मंत्र का जाप करना चाहिए। पूर्णिमा को पूजन के पश्चात अनन्त को गले या भुजा मे धारण करे
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