सुगंध दशमी व्रत: महत्व, कथा, पूजा विधि

दिगंबर जैन की मान्यताओं में सुगंध दशमी व्रत का काफी महत्व है और स्त्रियाँ हर वर्ष इस व्रत को करती हैं। धार्मिक व्रत को विधिपूर्वक करने से अशुभ कर्मों का क्षय, शुभास्रव और पुण्यबंध होता है तथा स्वर्ग मोक्ष की प्राप्ति होती है।सुगंध दशमी व्रत भी वैसा ही है। साथ ही सांसारिक दृष्टि से उत्तम शरीर प्राप्त होना भी इसका व्रतफल बताया गया है।यह व्रत भाद्रपद शुक्ला दशमी को किया जाता है। इसे सुगंध दशमी के अलावा धूप दशमी भी कहा जाता है। इस दिन सभी जैन स्त्री व पुरुष मंदिरों में जाकर धूप देते हैं। इसलिए वायुमंडल बड़ा सुगंधमय व स्वच्छ हो जाता है।व्रत का पूर्ण विधान तो भाद्रपद शुक्ल पंचमी से दशमी तक है। पंचमी को उपवास करना एवं भगवान की पूजा करना, षष्ठी से दशमी तक पूजा करना एवं दशमी को उपवास करना। आजकल दशमी को यह व्रत किया जाता है।

सुगंध दशमी व्रत की कथा(Story of Sugandh Dashami fast)

जम्बूद्वीप के विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी में शिवमंदिर नाम का एक नगर है। वहाँ का राजा प्रियंकर और रानी मनोरमा थी सो वे अपने धन, यौवन आदि के ऐश्वर्य में मदोन्मत्त हुए जीवन के दिन पूरे करते थे। धर्म किसे कहते हैं, वह उन्हें मालूम भी न था। एक समय सुगुप्त नाम के मुनिराज कृश शरीर दिगम्बर मुद्रायुक्त आहार के निमित्त बस्ती में आये, उन्हें देखकर रानी ने अत्यंत घृणापूर्वक उनकी निंदा की और पान की पीक मुनि पर थूंक दी। सो मुनि तो अन्तराय होने के कारण बिना आहार लिए ही पीछे वन में चले गये और कर्मों की विचित्रता पर विचार कर समभाव धारण कर ध्यान में निमग्न हो गये। परन्तु थोड़े दिन पश्चात् रानी मरकर गधी हुई, फिर सूकरी हुई, फिर कुकरी हुई, फिर वहाँ से मरकर मगध देश के बसंततिलका नगर में विजयसेन राजा की रानी चित्रलेखा की दुर्गन्धा नाम की कन्या हुई। सो इसके शरीर से अत्यन्त दुर्गन्ध निकला करती थी।

एक समय राजा अपनी सभा में बैठा था कि धनपाल ने आकर समाचार दिया कि हे राजन्! आपके नगर के वन में सागरसेन नाम के मुनिराज चतुर्विध संघ सहित पधारे हैं।यह समाचार सुनकर राजा प्रजा सहित वन्दना को गया और भक्तिपूर्वक नतमस्तक हो राजा ने स्तुति, वंदना की। पश्चात् मुनि तथा श्रावक के धर्मों के उपदेश सुनकर सबने यथाशक्ति व्रतादिक लिये। किसी ने सम्यक्त्व ही अंगीकार किया। इस प्रकार उपदेश सुनने के अनन्तर राजा ने नम्रतापूर्वक पूछा- हे मुनिराज! यह मेरी कन्या दुर्गन्धा किसी पाप के उदय से ऐसी हुई है सो कृपाकर कहिए। तब श्री गुरु ने उसके पूर्व भवों का समस्त वृत्तांत मुनि की निंदादिक कह सुनाया, जिसको सुनकर राजा और कन्या सभी को पश्चाताप हुआ। निदान राजा ने पूछा-प्रभो! इस पाप से छूटने का कौन सा उपाय है? तब श्री गुरु ने कहा-समस्त धर्मों का मूल सम्यग्दर्शन है, सो अर्हन्तदेव, निर्ग्रन्थ गुरु और जिनभाषित धर्म में श्रद्धा करके उनके सिवाय अन्य रागी-द्वेषी देव-भेषी गुरु, हिंसामय धर्म का परित्याग, अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह प्रमाण इन पाँच व्रतों को अंगीकार करे और सुगंध दशमी का व्रत पालन करे जिससे अशुभ कर्म का क्षय होवे।

इस व्रत की विधि इस प्रकार है—कि भादों सुदी दशमी के दिन चारों प्रकार के आहारों को त्यागकर समस्त गृहारम्भ का त्याग करे और परिग्रह का भी प्रमाणकर जिनालय में जाकर श्री जिनेन्द्रदेव की भाव सहित अभिषेकपूर्वक पूजा करे। सामायिक स्वाध्याय करे। धर्म कथा के सिवाय अन्य विकथाओं का त्याग करे, रात्रि में भजनपूर्वक जागरण करे। पश्चात् दूसरे दिन चौबीस तीर्थंकरों की अभिषेकपूर्वक पूजा करके अतिथियों (मुनि व श्रावक) को भोजन कराकर आप पारणा करे। चारों प्रकार के दान देवे। इस प्रकार दश वर्ष तक यह व्रत पालन कर पश्चात् उद्यापन करे। अर्थात् चमर, छत्र, घण्टा, झारी, ध्वजा आदि दश-दश उपकरण जिनमंदिरों में भेंट देवे और दश प्रकार के श्रीफल आदि फल दश घर के श्रावकों को बांटे। यदि उद्यापन की शक्ति न होवे, तो दूना व्रत करे।


उत्तम व्रत उपवास करने से, मध्यम कांजी आहार और जघन्य एकाशन करने से होता है। इस व्रत के दिन श्री शीतलनाथ भगवान की पूजा करें एवं‘‘ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री शीतलनाथ जिनेंद्राय नम:’’मंत्र का जाप्य करें। इस प्रकार राजा प्रजा सबने व्रत की विधि सुनकर अनुमोदना की और स्वस्थान को गये। दुर्गन्धा कन्या ने मन, वचन-काय से सम्यक्त्वपूर्वक व्रत को पालन किया। एक समय दसवें तीर्थंकर श्री शीतलनाथ भगवान के कल्याणक के समय देव तथा इन्द्रों का आगमन देखकर उस दुर्गन्धा कन्या ने निदान किया कि मेरा जन्म स्वर्ग में होवे, सो निदान के प्रभाव से यह राजकन्या स्वर्ग में अप्सरा हुई और उसका पिता राजा मरकर दसवें स्वर्ग में देव हुआ।


यह दुर्गन्धा कन्या अप्सरा के भव से आकर मगध देश के पृृथ्वीतिलक नगर में राजा महिपाल की रानी मदनसुन्दरी के मदनावती नाम की कन्या हुई, सो अत्यन्त रूपवान और सुगंधित शरीर हुई और कौशाम्बी नगरी के राजा अरिनंदन के पुत्र पुरुषोत्तम के साथ इस मदनावती का ब्याह हुआ। इस प्रकार वे दम्पत्ति सुखपूर्वक कालक्षेप करने लगे। एक समय वन में सुगुप्ताचार्य नाम के आचार्य संघ सहित आये सो वह राजकुमार पुरुषोत्तम अपनी स्त्री सहित वंदना को गया तथा और भी नगर के लोग वंदना को गये सो स्तुति, नमस्कार आदि करने के अनन्तर श्रीगुरु के मुख से जीवादि तत्त्वों का उपदेश सुना।

पश्चात् पुरुषोत्तम ने कहा- हे स्वामी! मेरी यह मदनावती स्त्री किस कारण से ऐसी रूपवान और अति सुगंधित शरीर है? तब श्री गुरु ने मदनावती के पूर्व भवांतर कहे और सुगंधदशमी के व्रत का माहात्म्य बताया तो पुरुषोत्तम और मदनावती दोनों अपने भवांतर की कथा सुनकर संसार, देह भोगों से विरक्त हो दीक्षा लेकर तपश्चरण करने लगे। इस प्रकार तपश्चरण के प्रभाव से मदनावती स्त्रीलिंग छेदकर सोलहवें स्वर्ग में देव हुई। वहाँ बाईस सागर सुख से आयु पूर्ण करके अंत समय चयकर मगध देश के वसुंधा नगरी में मकरकेतु राजा के यहाँ देवी पट्टरानी के कनककेतु नाम का सुन्दर गुणवान पुत्र हुआ।


पिता के दीक्षा ले लेने पर कितने काल राज्य करके वह भी अपने मकरध्वज पुत्र को राज्य दे दीक्षा लेकर तपश्चरण करके और देश-विदेशों में विहार करके अनेक जीवों को धर्म के मार्ग में लगाने लगे। इस प्रकार कितने काल कनककेतु मुनिनाथ को केवलज्ञान हुआ और बहुत काल तक उपदेशरूपी अमृत की वृष्टि करके शेष अघाति कर्मों का नाशकर परम पद मोक्ष को प्राप्त हुए।


इस प्रकार सुगंधदशमी का व्रत पालकर दुर्गन्धा भी अनुक्रम से मोक्ष को प्राप्त हुई तो भव्य जीव यदि यह व्रत पालें तो अवश्य ही उत्तमोत्तम सुखों को पावें।

सुगंध दशमी व्रत विधि(sugandh dashami fast vidhi)

सुगंध दशमी के दिन हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इन पाँच पापों के त्यागरूप व्रत को धारण करते हुए चारों प्रकार के आहार का त्याग, निराग्रह आदि का परिमाण करके मंदिर में जाकर भगवान की पूजा, स्वाध्याय, धर्मचिंतन-श्रवण, सामयिक आदि में अपना समय व्यतीत करें। दस पूजाएँ करें। सायंकाल में दशमुख वाले घट में दशांग धूप आदि का क्षेपण कर रात्रि को भजन आदि में समय लगाएँ।

दूसरे दिन प्रातः अभिषेक-पूजा आदि करके पात्रदान कर पारणा करें। व्रत निर्विघ्न पूर्ण होने पर उद्यापन करें। मंडल मंडवाकर पूजन कराएँ। मंदिर में शास्त्र, उपकरण आदि भेंट करें। दस प्रकार के श्रीफल श्रावकों को बाँटें।