सूर्य की विषम स्थितियाँ
जब भी सूर्य नीच का या पाप ग्रहों से संबंधित अथवा शत्रु स्थान में स्थित होता है तो उस समय अति कष्टदायक सिद्ध होता है और अनेक रोगों का कारण होता है | सूर्य को अन्य विषम स्थितियों इस प्रकार हो सकती है-
- सूर्य तुला राशि में सप्तम, अष्टम या द्वादश भाव में स्थित हो और नीच स्थित राशि स्थान मंगल उसे ज्योति दृष्टि से देखाता हो |
- यदि जन्मकाल या गोचर में वृष, तुला, मकर या कुंभ राशि में हो |
- शनि मंगल को देखता हो, मंगल सूर्य को देखता हो और सूर्य की महादशामें सूर्यांतरमें दुर्घटना का योग होता है |
- सूर्य अष्टम में मंगल के साथ हो
सूर्य के प्रभाव से होने वाले रोग
जब सूर्य रोग कारक होता है तो वह निम्नलिखित रोगों की संभावना होती है पित्त, उष्णज्वर, शरीर में जलन, हृदय रोग, नेत्र रोग, चर्म रोग, रक्ताल्पत्ता, पीलिया, लीवर, हैजा, शिरोवरण, विषज व्याधियाँ,दाहज्वर, आदि |
चंद्रमा की विषम स्थितियाँ
- चंद्रमा वृश्चिक (नीच) राशि का तीसरे, छठे, आठवें, या बारवे घर में हो | कन्या राशि गलत 7,9,2 में हो |
- लग्न में अष्टम नीच का हो और शनि ग्यारवें या दूसरे भाव से दसवीं दृष्टि से देखा हो |
- क्षीण चंद्र अष्टम में हो या मकर राशि हो तथा शनि द्वितीय या ग्यारवें भाव से देखा हो |
- चंद्रमा की महादशा में शनि का अंतर हो| कुंडली में चंद्र पाप ग्रहों से संबंध या युति रखता हो या मंगल देखा हो |
- चंद्रमा गोचर में पांचवें, आठवे या बारहवे होने पर कष्ट दायक होता है | इन स्थितियों में चंद्रमा निम्नलिखित रोग तथा कष्ट उत्पन्न करता है
चंद्रमा के प्रभाव से होने वाले रोग
मूत्राशय-संबंधी रोग, मधुमेह, अतिसार, अनिद्रा, नेत्र रोग, विक्षिप्तता, पीलिया, मानसिक थकान, शीत ज्वर, अरुचि, मंदाकिनी, सूखी खांसी, कुकर खांसी, दमा, श्वास रोग आदि | इनके लिए मोती धारण करना लाभदायक है |
मंगल की विषम स्थितिया
- जन्म कुंडली में मंगल कर्क राशि का होकर लग्न, सप्तम या चतुर्थ में बैठा हो |
- मंगल शत्रु ग्रह के साथ स्थित हो और सूर्य से दृष्ट हो
- मंगल मिथुन अथवा तुला राशि में काम आशंका हो और तीसरे या नवम भाव का स्वामी हो तथा शनि द्वारा दृष्ट हो|
- मंगल की दशा में मंगल का अंतर हो| उस समय गोचर चौथे, आठवें, बारहवें वक्री हो तो कई प्रकार के कष्ट उत्पन्न करता है|
मंगल के प्रभाव से होने वाले रोग होने वाले रोग
रक्त प्रवाह, रक्तातीसर, जल जाना, उच्च रक्तचाप, दुर्घटना, रक्त विकार, चर्म रोग,( दाद, खाज, खुजली), बवासीर, कुष्ठ, फोड़ा-फुंसी, हड्डी टूटना, पित्त ज्वर, गुल्म आदि |
बुद्ध की विषम स्थितियाँ
- बुध मीन का बारहवें, आठवी या पंचम में हो |
- बुध शत्रु गृही हो और शनि के साथ बारहवें, नवम या द्वितीय भाव में हो|
- बुध राहु के साथ सप्तम में हो |
बुद्ध के प्रभाव से होने वाले रोग
मुकबधिरता, नपुंसकता, अजीर्ण, शक्तिहीनता, आमाशयकी गड़बड़ी, वायुयान पीड़ा, हृदय गति रुकना, सन्निपात, भ्रांति, गले या नासिक के रोग ,उन्माद जिव्हा, रोग मिर्गी आदि |
गुरु की विषम स्थितियाँ
- गुरु की शत्रु ग्रहों के साथ युक्ति हो और मंगल अथवा शनि से दृष्ट हो |
- लगन से दूसरे वृश्चिक राशि का हो या लगन से तीसरे मिथुन राशि का हो या लगन से छठे मिथुन राशि का अथवा लग्न से आठवीं तुला राशि का हो |
- कुंडली में गुरु मकर का लग्न सप्तम या अष्टम में हो |
४. मकर का गुरु राहु के साथ सप्तम या दशमे में हो
गुरु के प्रभाव से होने वाले रोग
गले की तकलीफ, श्वास कष्ट, कफ, अतिसार, लिवर-संबंधी कष्ट, पक्षाघात, गठीया, आमवात, मूर्छा, कान के रोग, राज्य लक्ष्मा आदि |
शुक्र की विषम स्थितियों
- शुक्र नीच का कन्या राशिगत लग्न में सप्तम में या व्यय स्थान में हो
- शुक्र शत्रुघ्न कर्क और सिंह राशि स्थित हो यह शत्रु ग्रह की युक्ति हो और नवम अथवा दास में में बैठा हो
- शुक्र पर शत्रु ग्रहों की नीच दृष्टि हो या शुक्र ग्रह की महादशा में हो
- शुक्र राहु सूर्य के साथ तीसरे भाव में बैठकर भाग्य स्थान को देखा हो
शुक्र के प्रभाव से होने वाले रोग
वीर्य दोष नेत्र रोग पानी गिरना जल मोतियाबिंद ढूंढ आदि हिस्टीरिया कुंठितबुद्धि सर्वांग शोध मधुमेह प्रदर रोग गुड़ा अथवा इंद्रिय रोग प्रमेय सुजाक गर्भाशय संबंधी रोग अंडकोष वृद्धि मूत्र रोग धातु का जाना नासूर नपुंसकता गोनोरिया हर्निया आदि|
शनि की विषम स्थितियाँ
- कुंडली में शनि मेष राशि का किसी भी भाव में बैठा हो, वह उसे भाव के प्रभाव को बिगाड़ देता है |
२. शनि कर्क या वृश्चिक राशि होकर लग्न तृतीय पंचम या सप्तम में हो | - शनि और मंगल की किसी भी त्रिकोण में दोहरी संधि या युक्ति हो
- शनि राहु ग्रह के साथ केंद्र में हो या शनि में मंगल का अंतर हो|
शनि के प्रभाव से होने वाले रोग
पक्षाघात, हाथ-पैर या शरीर का कंपन, मिर्गी, मानसिक या स्नायु संबंधी रोग, गठिया, कैंसर, वातोदर, राज्य लक्ष्मण विश बड़ा सूजन उधर शु बार-बार ऑपरेशन होना लिहोदर कृमि रोग आदि
राहु की विषम स्थितियाँ
- राहु अष्टम भाव में हो तथा मंगल की उसे पर दृष्टि हो|
- शनि राहु की युक्ति हो और राहु धनु राशि का हो|
३. राहु नीचका नवम भाव में हो और मंगल का शनि की उसे पर दृष्टि हो| - राहु मेष, कर्क, सिंह या वृश्चिक राशि का लग्न, चतुर्थ, छठे अथवा दशम भाव में हो|
राहु के प्रभाव से होने वाले रोग
मस्तिष्क रोग, कब्ज, अतिसार, भूत-प्रेतका भय, चेचक, कुष्ठ रोग, कैंसर, गठिया, वायु विकार, हृदय रोग, रीड की हड्डी टूटना, त्वचा रोग आदि|
केतु की विषम स्थितियाँ
- केतु नीचका होकर वृष या मिथुन राशि का शुक्र के साथ स्थित हो |
- केतु जन्म कुंडली या गोचर में सूर्य के साथ सप्तम या अष्टम में हो|
- केतु लग्न या पंचम में शनि के साथ हो|
- केतु शत्रुग्रही (मेष, कर्क, सिंह, वृश्चिक का) द्वितीय, तृतीय, पंचम या सप्तम में शनि के साथ हो और सूर्य उसे देखा हो|
केतु के प्रभाव से होने वाले रोग
रक्ताल्पता, जल जाना, कैंसर, हैजा, निमोनिया, दमा, त्वचा या मूत्र रोग, प्रसवपीड़ा, छुतकी की बीमारी, पित्त रोग, बवासीर आदि |
उपरत्नो का प्रयोग
अत्यधिक मूल्यवान होने के कारण कुछ रत्न ऐसे है, जिन्हें सामान्य जन्म खरीद कर धारण नहीं कर सकते इसके अलावा अत्यधिक मूल चुकाने पर भी कई बार असली रत्न प्राप्त नहीं होता हर एक आदमी को सही रत्न की परक भी नहीं होती है ऐसी अवस्था में सामान्य व्यक्ति द्वारा ऊपर रत्नो का प्रयोग करना ही उपयुक्त है, क्योंकि उनका मूल्य भी उनकी क्रय शक्ति के अनुकूल होता है और पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होने के कारण नकली (कृत्रिम) होने की संभावना कम रहती है और ग्रहों के अरसतिनाशक गुण की दृष्टि से भी इनका अच्छा प्रभाव अनुभव किया गया है | जो गुण रत्न में होते हैं वह ही उपरत्नो में भी होते हैं| अतः ग्रह के अनुसार अरिष्ट रोग निवारणअर्थ निम्न उपरत्न उपरत्न धारण किए जा सकते हैं |
टेबल
गृह – रत्न – उपरत्न
सूर्य- माणिक्य- सूर्यकांत मनी या लकड़ी, तामड़ा
चंद्र – मोती – चंद्रकांत मणि
मंगल – मूंगा – विद्रुम मणि, या संघ मुंगी, रतुआ, लाल अकीक
बुध- पन्ना – मरगज, जबरजंद
बृहस्पति- पुखराज- सोनल या सुनेला
शुक्र -हीरा – कुरंगी, दतला, सिम्मा, तुर्मली
शनि- नीलम- जमुनिया नीली, लाजवर्त, काला अकीक
राहु-गोमेद- साफी, तुरसा, भारतीय गोमेद
केतु- लहसुनिया- फिरोजा, गोंदत, संघीय
प्रमुख रत्न के विशेष गुण
तामड़ा- यह प्रदाह कारी रोगों को शांत करता है| मित्रता एवं प्रेम में स्थित स्थापित करता है तथा धैर्य एवं साहस प्रदान करता है|
चंद्रकांत मणि- स्मृति, मानसिक शांति, अनिद्रानाश,ह्दयकष्ट आदि के लिए विशेष लाभदायक|
रतुआ – रक्तस्राव रोकता है अबुर्द एवं ज्वरनाशक तथा स्वर (आवाज को स्पष्ट) करता है |
सुनेला – कंठ संबंधी कष्ट, ज्वर, हैजा, हिस्टीरिया, हृदय स्पंदन, वमन, कमला, दांत कष्ट, मासिक, धर्म-संबंधी कष्ट और नपुंसकता में उपयोगी तथा जीवन को सुरक्षा प्रदान करता है|
मरगज – इस उपरत्न का प्रभाव पन्ना के समान है|
तुर्मली – इसको मास्टर स्टोन भी कहा जाता है| यह उपरत्न जीवन की समस्याओं को शीघ्रतासे हल करते हुए भौतिक सुख प्रदान करता है और कुछ बुरा फल नहीं देता है|
लाजवर्त – चर्म रोग में उपयोगी है|
फिरोजा – यह गंभीर खतरों से रक्षा कर दीर्घायु प्रदान करता है | संतान उत्पादक एवं काम शक्ति में वृद्धि करता है|
एनेक्स – दांपत्य सुख प्रदान करता है विषैला जंतुओं के काटने से बचाता है|
कटेला- रतौंधी पक्ष घाट मासिक धर्म संबंधी कासन में उपयोगी|
आनेक्स -दांपत्य सुख प्रदान करता है, विषैले जिव जन्तुओ के काटने से बचता है |
कटेला – रतौंधी, पक्षघात, मासिक धर्म सम्बन्धी कष्टों में उपयोगी |
ओपल – स्मरण शक्ति में वृद्धि करता है|
दाना फिरेगा – गुर्दे से संबंधित कासन को दूर कर सकता है|
रतन अथवा उपरत्न धारण करने से पूर्व किसी योग्य ज्योतिषी से परामर्श कर लेना चाहिए और रत्न धारण करने के अंगुली उपयुक्त तिथि नक्षत्र वर समय नाग का वजन अंगूठी धातु आदि की जानकारी प्राप्त कर लेनी भी आवश्यक है रोग अथवा पीड़ा कारक ग्रह के मंत्र का जाप निश्चित संख्या में करते हुए प्राण प्रतिष्ठा करने के पश्चात धारण किया वह रत्न विशेष प्रभावकारी होता है|
सिंह या वृश्चिक राशि का लग्न चतुर्थ साठे अथवा दशम भाव में हो|
राहु के प्रभाव से होने वाले रोग
मस्तिष्क रोग कब्ज अतिसार भूत प्रेत कब है चेचक कुष्ठ रोग कैंसर घटिया वायु विकार हृदय रोग रीड की हड्डी टूटना त्वचा रोग आदि|
केतु की विषम स्थितियों
केतु नीचे का होकर ब्रश या मिथुन राशि का शुक्र के साथ स्थित हो
केतु जन्म कुंडली या गोचर में सूर्य के साथ सप्तम या अष्टम में हो|
केतु लग्न या पंचम में शनि के साथ हो|
केतु शत्रुग्रही मेष कर्क सिंह वृश्चिक का द्वितीय तृतीय पंचम या सप्तम में शनि के साथ हो और सूर्य उसे देखा हो|
केतु के प्रभाव से होने वाले रोग
रक्ताल्पता जल आना कैंसर हिसार निमोनिया दम त्वचा या मूत्र रोग प्रसव पीड़ा छठ की बीमारी पित्त रोग बवासीर आदि
ऊपर रतन तक का प्रयोग
अत्यधिक मूल्यवान होने के कारण कुछ रन ऐसे ही जिन्हें सामान्य जन्म खरीद कर धारण नहीं कर सकते इसके अलावा अत्यधिक मूल चुकाने पर भी कई बार असली रत्न प्राप्त नहीं होती हर एक आदमी को सही रन पारक भी नहीं होती है ऐसी अवस्था में सामान्य जैन द्वारा ऊपर रन का प्रयोग करना ही उपयुक्त ही क्योंकि उनका मूल्य भी उनकी क्रय शक्ति के अनुकूल होता है और पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होने के कारण नकली कृत्रिम होने की संभावना कम रहती है और ग्रह के अरेस्ट नाशक गन की दृष्टि से भी इनका अच्छा प्रभाव अनुभव किया गया है जो गुण रत्न में होते हैं वह ही उपरोक्त में भी होते हैं अतः ग्रह के अनुसार अरेस्ट रोग निवारण अर्थ निम्न उपरत्न उपरत्न धारण किए जा सकते हैं |
सूर्य माणिक्य सूर्यकांत मनी या लकड़ी तामड़ा
चंद्र मोती चंद्रकांत मणि
मंगल मंगा विद्रोह मनी या संघ मुंगी रतवा लाल केक
भूत पन्ना मरगज जबरजंद
बृहस्पति पुखराज सोनल या सुनीला
शुक्र हीरा कोरंगी दला सीमा तुर्मली
शनि नीलम जमुनिया नीली लाजवर्त कल केक
राहु गोमेद सफी तोसा भारतीय गोमेद
केतु लहसुनिया फिरोजा गोंड संघीय
प्रमुख रतन के विशेष गुण
तामड़ा- यह प्रदा कार्य रोगों को शांत करता है मित्रता एवं प्रेम में स्थित स्थापित करता है तथा धैर्य एवं साहस प्रदान करता है|
चंद्रकांत मणि- स्मृति अनिद्रा नाश राधे कष्ट आदि के लिए विशेष लाभदायक|
रतवा – रक्तस्राव रोकता है एबर्ध एवं ज्वर नाशक तथा स्वर आवास को स्पष्ट करता है |
सुनीला – कंठ संबंधी कष्ट ज्वार भेजो हिस्टीरिया हृदय स्पंदन वामन कमला दांत कष्ट मासिक धर्म संबंधी कष्ट और नपुंसकता में उपयोगी तथा जीवन को सुरक्षा प्रदान करता है|
मरगज – इस उपरत्न का प्रभाव पन्ना के समान है|
तुर्मली – इसको मास्टर स्टोन भी कहा जाता है यह उपरत्न जीवन की समस्याओं को शीघ्रता से हल करते हुए भौतिक सुख प्रदान करता है और कुछ बुरा फल नहीं देता है|
लाजवर्त – चर्म रोग में उपयोगी है|
फिरोज – यह गंभीर खतरों से रक्षा कर दीर्घायु प्रदान करता है संतान उत्पादक एवं काम शक्ति में वृद्धि करता है|
एनेक्स – दांपत्य सुख प्रदान करता है विषैला जंतुओं के काटने से बचाता है|
कटेला- रतौंधी पक्ष घाट मासिक धर्म संबंधी कासन में उपयोगी|
ओपल – स्मरण शक्ति में वृद्धि करता है|
दाना फिरेगी – गुर्दे से संबंधित कासन को दूर कर सकता है|
रतन अथवा उपरत्न धारण करने से पूर्व किसी योग्य ज्योतिषी से परामर्श कर लेना चाहिए और रत्न धारण करने के अंगुली उपयुक्त तिथि नक्षत्र वर समय नाग का वजन अंगूठी धातु आदि की जानकारी प्राप्त कर लेनी भी आवश्यक है रोग अथवा पीड़ा कारक ग्रह के मंत्र का जाप निश्चित संख्या में करते हुए प्राण प्रतिष्ठा करने के पश्चात धारण किया वह रन विशेष प्रभावकारी होता है|